कोरोना पर पीएम मोदी की अदूरदर्शिता की भारी कीमत चुकाएगा भारत

Updated on 01-05-2021 10:20 PM

न्यूयार्क  राजधानी दिल्ली के उप-नगरीय इलाके में स्थित एक छोटे श्मशान घाट पर 26 अप्रैल को एक साथ सात शव जलाए जा रहे थे। गोधूलि बेला में एक साथ इतने शव एक साथ जलाए जाने से वातावरण में घुली अप्रिय गंध से वहां मौजूद मृतकों के परिजनों की बेचैनी और बढ़ गई थी। स्थानीय निवासी गौरव सिंह ने बताते हैं, 'मैं इस इलाके में बचपन से रह रहा हूं और इस इलाके से दिन में औसतन दो बार निकलता हूं। उन्होंने कहा आज से पहले मैंने कभी इतने शव एक साथ जलते नहीं देखे। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में इतने बड़े पैमाने पर हो रही मौतों को नजरअंदाज करना कठिन है। अधिकांश अस्पतालों में जरूरी चिकित्सा सुविधाओं का टोटा पैदा हो गया है। भारत में, कुछ माह पहले तक ऐसे तकलीफ देह परिदृष्य की कल्पना करना कठिन था। कोरोना को लेकर केंद्र सरकार ने सुरक्षा उपायों की लगातार अनदेखी की। पीएम मोदी का अपनी पूर्व धारणाओं पर आधारित उत्साह तब भी फीका नहीं पड़ा, जब महामारी विशेषज्ञों ने चेतावनी दी कि भारत के अनेक राज्यों में कोरोना संक्रमण के मामले क्रमश: बढ़ने लगे हैं। 21 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने एक प्रस्ताव पास कर उनके कल्पनाशील नेतृत्व की सराहना की। लेकिन यह उत्साह ज्यादा दिन तक कायम नहीं रहा। दो माह बाद स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी थी। कोरोना का संकट गहरा गया था। 21 अप्रैल से शुरू होने वाले सात दिनों में से छह दिनों में रोजाना कोरोना संक्रमण के लिहाज से भारत ने नया वैश्विक रिकार्ड बना डाला। इस समय कोरोना संक्रमण के रोजाना केसों के सामने तीन लाख रोजाना का अमेरिकी आंकड़ा भी कम दिखाई देने लगा। भारत में अब तक दो लाख से अधिक लोगों की कोरोना से मौत हो चुकी है, जबकि तीन हजार से अधिक लोग रोजाना अपनी जान गवां रहे हैं। देश के चिकित्सालयों में कोरोना मरीजों के उपचार के लिए जरूरी बिस्तरों और वेंटीलेटरों की भारी कमी है। देश के अधिकांश अस्पतालों में आक्सीजन उपलब्ध नहीं है। कोरोना मरीजों के परिजनों को रेमडेसिविर इंजेक्शन और ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए भारी रकम अदा करनी पड़ रही है। इस मानवीय त्रासदी ने देश की 14 अरब नागरिकों को झकझोर दिया है।

पिछले साल जिन दिनों महामारी ने दुनिया में अपना मारक प्रभाव फैलाना शुरू किया, उस समय भारत ने बचाव के उपायों पर गौर नहीं किया। बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने मार्च में अचानक राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लागू कर दिया, जिसकी वजह से हजारों प्रवासी श्रमिक परेशानी में पड़ गए और सैकड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। महामारी काल में भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा गई। इस दबाव को कम करने के लिए भारत सरकार ने जून में लॉकडाउन में शिथिलता देते हुए कारोबारी गतिविधियां शुरू करने की अनुमति दे दी गई। कहा जाने लगा कि भारत ने हर्ड इम्यूनिटी की स्थिति हासिल कर ली है। इसका श्रेय 27 फीसदी मध्य आयु के युवा लोगों को दिया गया। भारत में केवल 64 फीसदी भारतीय ही 65 साल से अधिक उम्र के हैं। भारत की 66 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। सरकार निश्चिंत रही कि ग्रामीण इलाके कोरोना से मुक्त हैं। इस आशावादी परिस्थिति को दो तथ्यों ने चिंताजनक बना दिया। पहली यह कि कोरोना इन दिनों युवा वर्ग और गरीबों को भी बड़ी संख्या में अपनी चपेट में ले रहा है, दूसरी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले राज्यों से भी बड़ी संख्या में कोरोना संक्रमण के मामले सामने रहे हैं।

ध्यान देने की बात है कि भारत में दशकों से चिकित्सा के क्षेत्र पर काफी कम पैसे खर्च किए जाते रहे हैं, इस वजह से अस्पतालों में आज की जरूरतोँ के अनुरूप सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जा सकी हैं। इसका खामियाजा कोरोना संकट के इस दौर में भुगतना पड़ा। भारत अपनी जीडीपी का केवल 35 फीसदी ही स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करता है। जो फ्रांस और ब्रिटेन जैसे दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। ये देश अपने चिकित्सा क्षेत्र पर क्रमश: 113 फीसदी और 10 फीसदी धन खर्च करते हैं। ब्राजील (95 फीसदी) और दक्षिण अफ्रीका (83) जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं भी भारत की तुलना में चिकित्सा पर ज्यादा धन खर्च करती हैं। भारतीय हेल्थ केयर पर खर्च होने वाला एक तिहाई धन ही सरकार उपलब्ध कराती है। बाकी धन नागरिकों से वसूला जाता है। वेल्लूर स्थित क्रिश्चियन मेंडिकल कालेज के वायरोलाजिस्ट और पब्लिक पालिसी रिसर्चर डॉ। गगनदीप कांग ने कहा कि जो लोग खर्च उठा सकते हैं, उन्हें ही समुचित चिकित्सा सुविधाएं मिल पाती हैं|

विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान संकट इतना गंभीर नहीं होता यदि सरकार ने समय पर सही निर्णय लिए होते। कैलीफोर्निया स्थित सैनफोर्ड बर्नहैम ब्रीबीज मेडिकल डिस्कवरी इंस्टीट्यूट के संक्रामक रोग विशेषज्ञ सुमित चंदा ने कहा बहुत सारे भारतीयों ने, पिछले साल खूब एहतियात बरती पर बाद में मास्क लगाना बंद कर दिया। वे सार्वजनिक समारोहों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। लोगों में यह धरणा घर कर गई कि भारत ने कोरोना वायरस को जीत लिया है। भारतीय राजनेताओं ने कोरोना संक्रमण बढ़ोतरी के आंकड़ों और वायरस के नए म्यूटेंटों के प्रसार से जुड़ी अन्य देशों से रही खबरों को लगातार नजरअंदाज किया। मार्च के आरंभ में ही यह स्पष्ट हो गया था कि आगे स्थिति जटिल होने वाली है, पर उस समय भी भारत सरकार के प्रतिनिधि इस तरह व्यवहार कर रहे थे, जैसे कोई गंभीर बात नहीं हो। धीरे-धीरे कोरोना बेकाबू होता गया। बीती 17 अप्रैल को भारत कोरोना संक्रमण के लिहाज से ब्राजील को पीछे छोड़ता हुआ दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा कोरोना प्रभावित देश बन गया, तब भी किसी ने इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया। आत्मनिर्भर भारत की पीएम मोदी की जिद की वजह से फाइजर और बायोनेटेक सहित अन्य विदेशी वैक्सीन को खरीद कर जल्द से जल्द कोरोना से मुक्त होने की जगह प्रधानमंत्री मोदी ने भारत निर्मित कोवैक्सिन को ज्यादा महत्व दिया।

घरेलू मोर्चे पर बढ़ रहे संकट को नजरअंदाज करते हुए भारत को चिकित्सा हब साबित करने की जिद में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत में उत्पादित कोरोना वैक्सीन की खुराकों का निर्यात शुरू कर दिया, जबकि उस समय भारत की केवल 02 फीसदी जनसंख्या को ही वैक्सीन लगाई गई थी। मोदी महामारी से निपटने में विफलताओं को स्वीकार करने के प्रति लगातार अनिच्छुक दिखाई देते रहे हैं, लेकिन अब भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती कोरोना की तीसरी लहर को रोकने की है। इसके लिए बड़े पैमाने पर टीकाकरण किया जाना जरूरी है। जिस गति से वैक्सीनेशन हो रहा है, उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। भारत में अब तक केवल 9 फीसदी लोगों को ही कोरोना वैक्सीन लगाई गई है। टोरंटो विश्वविद्यालय के माइकेल्स हास्पिटल के डॉ प्रभात झा ने कहा कोरोना की तीसरी लहर से बचने के लिए भारत के 1 अरब लोगों में तेजी से टीकाकरण की जरूरत है। उन्होंने कहा ट्रांसमिशन को कम करने का यह सबसे प्रभावी तरीका हो सकता है कि हॉट-स्पॉट और उच्च-जोखिम वाले लोगों की पहचान की जाए और वहां सबसे पहले टेस्ट और वैक्सीनेशन किया जाए। देश में कोरोना का संक्रमण बढ़ने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भारत से वैक्सीन निर्यात को निलंबित कर दिया है और अन्य वैक्सीनों के आयात को मंजूरी दे दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अदूरदर्शिता की वजह से पैदा हुई गंभीर स्थिति का असर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के लाखों लोगों पर भी पड़ रहा है, जो कोरोना वैक्सीन के लिए पूरी तरह से भारत पर ही निर्भर हैं।

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