ग्लोबल वार्मिंग से साल 2050 तक दुनिया के एक अरब से अधिक लोगों के विस्थापित होने का खतरा

Updated on 12-09-2020 07:09 PM

लंदन पारिस्थितिकीय खतरों को लेकर दुनिया के वैज्ञानिकों ने  एक अरब से अधिक लोगों के विस्थापित होने का खतरा जताया है। लिहाजा, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के नतीजे दुनिया के सामने अलग-अलग रूप में सामने रहे हैं। पर्यावरणविद भी लोगों को अपने विभिन्न शोधों के द्वारा प्राकृतिक प्रकोपों से लोगों को सतर्क करने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में एक अध्ययन से पता चला है कि कुछ सालों में ही एक अरब से ज्यादा लोगों को जलवायु की समस्याओं के चलते विस्थापित होना पड़ सकता है। हाल ही इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमी एंड पीस की रिपोर्ट में यह अनुमान बताया गया है। यह संस्था हर साल वैश्विक आतंकवाद और शांति के इंडेक्सेस जारी करता है। इस संस्था ने संयुक्त राष्ट्र और अन्य स्रोतों के आंकड़ों का उपयोग कर 157 देशों में आठ पारिस्थितिकीय खतरों से सामना होने के नतीजों की गणना की। इसके बाद उन्होंने उस देश की इन खतरों से निपटने की क्षमता का भी आंकलन किया। इस अध्ययन में, एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन और तेजी से बढ़ती जनसंख्या जैसे कारकों की वजह से 31 देशों के 1.2 अरब से अधिक लोगों के समाने अपनी जगह से विस्थापित होने के जोखिम का खतरा जाएगा क्योंकि यह पारिस्तिथिकी खतरों का पर्याप्त प्रतिरोध नहीं कर सकेंगे। इनमें से शीर्ष 19 देशों में खाद्य और पानी की कमी होगी जो कि दुनिया के 40 सबसे कम शांतिपूर्ण देशों में शामिल होंगे।

इस अध्ययन में कहा गया है कि साल 2050 तक कुल 141 देश ऐसे होंगे जो कम से कम एक पारिस्थिकी खतरे का सामना कर रहे होंगे। इनमें से सबसे ज्यादा खतरा अफ्रीका के उप साहरा, दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देशों में होगा। वहीं पानी की कमी के मामले में भारत चीन के साथ शीर्ष पर है। बड़ी संख्या में पलायन करने वाले लोगों की संख्या के जाखिम के मामले में पाकिस्तान शीर्ष पर है। इसके बाद इथोपिया और ईरान का नाम आता है। इसके पीछे अध्ययनकर्ताओं की टीम का सोचना है कि छोटे पारिस्थिकी खतरे और प्राकृतिक आपदाएं एक बड़ी जनसंख्या को पलायन करने हेतु उकसाने के लिए काफी होगी। वहीं बड़ा पलायन नाइजीरिया अंगोला, बुर्कीना फासो, और यूगांडा जैसे देशों में बड़ी जनसंख्या वृद्धि के कारण होगा। आईईपी के संस्थापक स्टीव किलेलिया ने कहा कि विकसित देश भी इस विशाल सामाजिक और राजनैतिक असर को झेलेंगे क्योंकि इससे इन देशों में शरणार्थियों की संख्या बढ़ जाएगी। स्टीव ने कहा कि पारिस्तिकी खतरे वैश्विक शांति को नई चुनौतियां पेश करेंगीं। आने वाले 30 सालों में खाद्य सामग्री और पानी तक पहुंच और कम हो जाएगी अगर वैश्विक स्तर पर तुरंत सहयोग नहीं किया गया। कार्रवाई किए जाने के कारण, जन अशांति, दंगे, और विवादों के बढ़ने की सबसे ज्यादा संभावना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 50 साल पहले दुनिया में जितना पीने का पानी उपलब्ध था, आज उससे 60 प्रतिशत कम उपलब्ध है। साल 2050 तक खाद्य पदार्थों की कीमतों में 50 प्रतिशत बढ़त हो जाएगी। इसके साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की मात्रा भी जलवायु संकट के कारण बढ़ जाएगी जिसका मतलब यह है कि कुछ स्थायी देश भी 2050 तक कमजोर जाएंगे।

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