नई दिल्ली: आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने बैंकों में डिपॉजिट ग्रोथ में लगातार आ रही कमी पर चिंता जताई है। उनका कहना है कि इससे बैंकों को भविष्य में कर्ज देने में दिक्कत हो सकती है। बैंकों के एफडी और डिपॉजिट रेट बढ़ाने के बावजूद लोग बैंकों में पैसा जमा करने के बजाय म्यूचुअल फंड और शेयर मार्केट में निवेश कर रहे हैं। इस कारण बैंकों का डिपॉजिट ग्रोथ क्रेडिट ग्रोथ से कम हो गया है। इस कारण बैंकों को कर्ज देने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यही वजह है कि बैंकों को ऋण की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए शॉर्ट-टर्म नॉन-रिटेल डिपॉजिट्स और लाइबिलिटी के अन्य साधनों का ज्यादा सहारा लेना पड़ रहा है। दास ने चेतावनी दी है कि यही स्थिति रही तो देश के बैंकों के लिए गंभीर स्ट्रक्चरल समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
एसबीआई की हाल में आई एक रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक देश के बैकों की लोन ग्रोथ बढ़ रही है जबकि डिपॉजिट्स उस हिसाब से नहीं बढ़ रहा है। लोग बैंकों में पैसा जमा करने के बजाय म्यूचुअल फंड और इक्विटी में निवेश कर रहे हैं। अधिकांश बैंक एफडी पर करीब 7 से 8 फीसदी ब्याज दे रहे हैं। लेकिन लोग अपनी बचत को बैंकों में जमा करने के बजाय म्यूचुअल फंड्स और इक्विटी में निवेश कर रहे हैं। इसकी वजह है कि उन्हें वहां ज्यादा रिटर्न मिल रहा है। म्यूचुअल फंड्स में लोगों को करीब 12% से ज्यादा रिटर्न मिल रहा है। जुलाई में इक्विटी म्यूचुअल फंड्स में 37,000 करोड़ रुपये से अधिक निवेश हुआ। जुलाई में एसआईपी इन्फ्लो में 10 फीसदी तेजी आई और यह पहली बार 23,000 करोड़ रुपये के पार पहुंच गया। वहीं शेयर बाजार भी रोज नए-नए रेकॉर्ड बना रहा है। इससे बैंकों को दो दशक में सबसे गंभीर डिपॉजिट संकट का सामना करना पड़ सकता है।
डिपॉजिट कम हुआ तो
डिपॉजिट ग्रोथ बैंकों के लिए अहम है क्योंकि यह लोन की फंडिंग और लिक्वडिटी के लिए जरूरी है। हाई डिपॉजिट लेवल से बैंकों को लोन पर कंप्टीटिव इंटरेस्ट रेट ऑफर करने, अपनी परिचालन जरूरतों को सपोर्ट करने और रेगुलेटरी जरूरतों को पूरा करने में मदद मिलती है। जब डिपॉजिट ग्रोथ में कमी आती है, तो बैंकों को कई तरह के रिस्क का सामना करना पड़ता है। मससन उन्हें लोन देने में दिक्कत होती है। साथ ही उन्हें फंडिंग के महंगे स्रोतों पर निर्भरता रहना पड़ता है और नगदी की समस्या पैदा होती है। इससे उधार लेने की लागत बढ़ सकती है, प्रॉफिटैबिलिटी कम हो जाती है और क्रेडिट रिस्क से प्रभावी ढंग से निपटने की उनकी क्षमता कम हो सकती है। अगर लंबे समय तक यही स्थिति रहती है तो इससे बैंकों की वित्तीय स्थिति बिगड़ सकती है और ग्रोथ की संभावनाएं कमजोर कर सकती है।जानकारों का कहना है कि डिपॉजिट में कमी के कारण बैंकों को अब जो लोन देना पड़ रहा है, उससे फंड्स की कॉस्ट बढ़ जाएगी। इससे बैंकों को रेवेन्यू और प्रॉफिट मार्जिन बढ़ाने के लिए अन्य वित्तीय उत्पादों को बेचने से मिलने वाले कमीशन पर ध्यान देना होगा। सवाल है कि डिपॉजिट ग्रोथ में कमी के लिए कौन जिम्मेदार है। इसके लिए कंज्यूमर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वे केवल वहीं पैसा लगाएंगे जहां ज्यादा रिटर्न मिलेगा। इसके लिए बैंकों के निराशाजनक सेविंग रेट्स जिम्मेदार हैं। बैंक सेविंग अकाउंट्स पर 3 से 3.5% ब्याज देते हैं जबकि एफडी पर यह रेट 7% से 7.75% तक है। बैंकरों का कहना है कि इक्विटी, म्यूचुअल फंड्स और ईएलएसएस पर मिल रहे आकर्षक रिटर्न के कारण लोग एफडी से मुंह मोड़ रहे हैं।आरबीआई की एमपीसी ने लगातार नौवीं बार रेपो रेट में कोई बदलाव नहीं किया है लेकिन बैंक चुनिंदा तरीके से डिपॉजिट और लेडिंग रेट्स में बढ़ोतरी कर रहे हैं। बैंकिंग इंडस्ट्री के एक्सपर्ट्स का कहना है कि बैंक कॉस्ट ऑफ डिपॉजिट में बढ़ोतरी का बोझ हाई एमसीएलआर रेट्स के रूप में बोरोअर्स पर डाल रहे हैं। यानी एक तरफ वे लोन की दरें बढ़ा रहे हैं और दूसरी ओर एफडी पर रेट बढ़ा रहे हैं। इंटरेस्ट रेट मार्केट की समस्या यह है कि डिपॉजिटर्स सेविंग अकाउंट्स पर पर्याप्त ब्याज नहीं देने के लिए बैंकों को दंडित कर रहे हैं। माना जा रहा है कि दिसंबर 2024 में नीतिगत ब्याज दरों में कटौती हो सकती है।