क्या सरकारी नौकरी के लिए भर्ती के नियम बीच में बदले जा सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने दिया अहम फैसला

Updated on 07-11-2024 05:02 PM
नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि सरकारी नौकरियों में भर्ती से जुड़ने नियम चयन प्रक्रिया शुरू होने के बाद बदले नहीं जा सकते। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया कि पदों के लिए चयन प्रक्रिया शुरू होने के बाद 'खेल के नियमों' को बीच में बदला नहीं जा सकता है, जब तक कि संबंधित नियम ऐसा करने की स्पष्ट अनुमति न दें। यह मामला राजस्थान हाई कोर्ट में ट्रांसलेटर के पदों पर भर्ती से जुड़ा था।

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली बेंच ने अपने अहम फैसले में कहा, 'भर्ती प्रक्रिया की शुरुआत उस विज्ञापन के जारी होने से होती है जिसमें आवेदनों के लिए आमंत्रण और रिक्तियों को भरने का आह्वान किया जाता है। भर्ती प्रक्रिया के प्रारंभ में अधिसूचित चयन सूची में शामिल होने के लिए पात्रता मानदंड को बीच में बदला नहीं जा सकता है, जब तक कि वर्तमान नियम इसकी अनुमति न दें या वह विज्ञापन, जो वर्तमान नियमों के विपरीत न हो, इसकी अनुमति न दे।'

यह फैसला जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने सुनाया। पीठ में जस्टिस ऋषिकेश रॉय, पीएस नरसिम्हा, पंकज मित्तल और मनोज मिश्रा भी शामिल थे।

मामले की सुनवाई जुलाई 2023 में पूरी हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सरकारी नौकरी के लिए नियम भर्ती प्रक्रिया शुरू होने के बाद नहीं बदले जा सकते हैं। कोर्ट ने अपने पुराने फैसले 'के. मंजुश्री बनाम आंध्र प्रदेश राज्य' (2008) को सही ठहराया। इस फैसले में कहा गया था कि भर्ती प्रक्रिया के नियम बीच में नहीं बदले जा सकते। कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि चयन सूची में जगह मिलने से उम्मीदवार को रोजगार का पूर्ण अधिकार नहीं मिल जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 'के मंजुश्री' का फैसला सही है। यह फैसला गलत नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें सुप्रीम कोर्ट के 1973 के फैसले 'हरियाणा राज्य बनाम सुभाष चंदर मारवाह' पर विचार नहीं किया गया था। 'मारवाह' मामले में कोर्ट ने कहा था कि न्यूनतम अंक पाने वाले उम्मीदवारों को नौकरी का अधिकार नहीं है। सरकार ऊंचे पदों के लिए उच्च मानदंड तय कर सकती है।

यह मामला राजस्थान हाई कोर्ट के स्टाफ में 13 ट्रांसलेटर के पदों को भरने के लिए भर्ती प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। उम्मीदवारों को एक लिखित परीक्षा में शामिल होना था, उसके बाद इंटरव्यू होना था। इक्कीस उम्मीदवार उपस्थित हुए। इनमें से केवल तीन को हाई कोर्ट (प्रशासनिक पक्ष) द्वारा सफल घोषित किया गया था। बाद में पता चला कि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने आदेश दिया था कि केवल उन्हीं उम्मीदवारों का चयन किया जाए जिन्होंने कम से कम 75 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हों। खास बात ये है कि जब हाई कोर्ट ने पहली बार भर्ती प्रक्रिया की अधिसूचना जारी की थी तो इस 75 प्रतिशत मानदंड का जिक्र नहीं किया गया था। इसके अलावा, इस संशोधित मानदंड को लागू करने पर ही तीन उम्मीदवारों का चयन किया गया और शेष उम्मीदवार बाहर हो गए।

तीन असफल उम्मीदवारों ने हाई कोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका दायर करके इस परिणाम को चुनौती दी, जिसे मार्च 2010 में खारिज कर दिया गया, जिसके बाद उन्होंने (अपीलकर्ताओं ने) राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यूनतम 75 प्रतिशत अंक मानदंड लागू करने का निर्णय 'खेल खेलने के बाद खेल के नियमों को बदलने' के समान था, जो सही नहीं था। इसके समर्थन में, उन्होंने के. मंजुश्री आदि बनाम आंध्र प्रदेश राज्य में 2008 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया।
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